अहंकार की थी पराकाष्ठा
उन्मत्त थे बोल
शासन बना था कुशासन
मेढ़ खाती थी खेत
रखवाला बना था सेंधमार
सीमाएं थी असुरक्षित
शत्रु हो रहे थे प्रबल
सर ऊंचे हो रहे थे बागिओं के।
प्रजा थी परेशां
एक आंधी सी आई
छंटा तब कुहाषा
काली बदली से निकला
आशाओं का सूरज
मन की उमंगों ने ली
एक अंगड़ाई
सुनहले दिनों की
एक आभास आई।
No comments:
Post a Comment