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Saturday, May 31, 2014

अच्छे दिन आने वाले हैं

अहंकार की थी पराकाष्ठा
उन्मत्त थे बोल 
शासन बना था कुशासन  
मेढ़ खाती थी खेत 
रखवाला बना था सेंधमार 
सीमाएं थी असुरक्षित 
शत्रु हो रहे थे प्रबल 
सर ऊंचे हो रहे थे बागिओं के। 
प्रजा थी परेशां 

एक आंधी सी आई 
छंटा तब कुहाषा 
काली बदली से निकला 
आशाओं का सूरज 
मन की उमंगों ने ली 
एक अंगड़ाई 
सुनहले दिनों की 
एक आभास आई। 

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