CPM

Wednesday, March 23, 2016

भोजपुरी मिक्स दही बड़ा होली इस्पेशल

(भोजपुरी मिक्स दही बड़ा होली इस्पेशल)
तो भैया बात अइसी है कि २०११ में हमको कम्पनी के तमिलनाडु प्लांट भेज दिया गया, कि जाओ और सॉफ्टवेयर की ट्रेनिंग दो औरु चलवाओ।  लो भइया मच गई भसड़, हमरा दिमाग ताकधिन करने लगा। सुन रखे थे कि वहां वालों को हिंदी से नफरत है और सब बतिया अंग्रेजी में ही करते हैं।  खैर अब जाना था तो जाना ही था। जी तयशुदा टाइम पर हम भी चहुँप गए। पहला दिन वहां के हेड से बात हुई सबको मेल डाल दी गई कि फलां फलां टाइम पर मीटिंग हाल में सब इकट्ठे हो।  चलो जी मरता क्या न करता सब इकट्ठे हुए ४० - ५० लोगों के सामने अपना इंट्रो देने में ही "is, was, because" हो गया,  पूरा कनपट्टी गरम जहें देखो वहीँ से पसीना आ धुंआ निकलने लगा था।  नरेटी बेफलतुवे में सूख रही थी आ हम भकभका के पानी घोंट रहे थे, खैर खुदा खुदा करते इंट्रो पूरा हुआ उसके बाद प्रश्न उत्तर शुरू हो गया। आहि दादा भइल बवाल, अब का होइ ? अबले त अपने के बोले के रहे  आ अब त सुनहुँ के पड़ी, ए डीह बाबा अब का होई ? भइया ओकरी बाद त मदरसिया उ फड़फड़ा फड़फड़ा के अंग्रेजी बोललन स की दिमाग दही हो गइल। ससुरा बुझइबे ना करे कि सेंटेंस में पास्ट प्रजेंट फ्यूचर कब आ कहाँ बोले के बा। अब केकरा के केतना आ "का" बुझाइल ई त रामे जानें। ओ दिन अंग्रेजी के अइसन माई बहिनी भइल की उहो साँझ के बेरा कपार ध के रोवत रहल कि इ बाबू  तूं रहे द, काहे हमार लिंगाझोरी करवावत बाड़ा। 
हम हिंदी मीडियम के विद्यार्थी अंग्रेजी पढ़े भी थे और आती भी थी, लेकिन दिक्कत बोलने की थी, कभी इतना खुद पे कॉन्फिडेन्स नहीं आया था कि अंग्रेजी बोल सकें। उ का था कि अंग्रेजी भी हिंदी मीडियम से पढ़े थे (हा हा हा हा),  बेस था अंग्रेजी का, लेकिन उ बेसवा हिंदी के ढेर में ढेर नीचे दबा गया था। जइसे पिज्जवा का बेसवा देखे हैं ना, जब सजा दिया जाता है त बेसवा का पत्ते नहीं चलता है, ठीक उसी तरह का हमरा भी बेसवा था। धूर माटी में लोटियाया हुआ (हा हा हा हा)। आ हम इतने बज्जर बेहाया थे कि अंग्रेजी बोलने वालों को भी हिंदी बोलवा दिया करते थे। जैसा कि दिल्ली के आस पास का माहौल है कि जिसको अंग्रेजी नहीं भी आती है, वो भी जोड़ बटोर के अंग्रेजी में ही पोंकता है। लेकिन हम इस ममिले में पूरे वाले बज्जर थे। अब गांव का पहलवान कितनों को पटकेगा। और वही हुआ मदरास में जा के पटका गए। अ वहां पटका तो गए लेकिन लुत्ती लगा के भी आए।  अब हाल ये है कि वहां का स्टाफ अच्छी खासी हिंदी बोलने लगा है। बड़ा आनंद आता है उन लोगों से हिंदी में बात करके।  गलत सलत बोलते हैं लेकिन हिंदी बोलते हैं।  अब उन लोगों में कॉन्फिडेंस भरने का काम कर रहा हूँ। 

कुल मिला के बात ये है कि भाषा की बेल्ट के हिसाब ही अगर लिखा पढ़ा जाए तो ठीक है नहीं तो बेज्जती तय है। अब देखा जाए तो फेसबुक पर हम लोगों के बीच कितने लोग अंग्रेजी में लिखते हैं? अब जो लिखता भी है तो  उसकी पोस्ट को पढ़ते कितने लोग हैं? अगर थोड़ा जाना पहचाना चेहरा हुआ तो लोग लाइक कर देंगे लेकिन पढ़ेंगे नहीं। शायद ही कोई एक दो लोग उसे पढ़ेंगे। लिखने का मकसद पूरा नहीं होगा। तो भइया देशी का छौंक मार के जगह के हिसाब से लिखिए, अपने ऑडियंस की भाषा में लिखिए। (और भी बहुत सी बातें हैं तमिलनाडु की, समय प्रति समय उभर कर आती रहेंगी)।

No comments: