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Wednesday, October 29, 2014

धूप

दूर क्षितिज पर उगता सूरज
गुन गुन करती आती धूप
रिश्तों की गरमाइश में
तार पिरोती आती धूप
यहां वहां की ओछी बातें
कुछ समझी कुछ सोची बातें
कुछ छोटी कुछ मोटी बातें
कुछ उल्झी कुछ सुल्झी बातें
रिश्तों की ठंढ़ाईश में
गुन गुन जीवन लाती धूप
चिट्ठी पत्री की बातें
मान मनौवल की बातें
खाट खटोलों की बातें
समझ सयानों की बातें
दूर हुए रिश्ते नाते
अंधकार की बदली में
जीवन नृत्य कराती धूप
सूरज अस्ताचल को जाता
धीरे धीरे जाती धूप
जीवन के गहरे अर्थों को
समझाती है,  जाती धूप
जीवन की उत्तरवेला पर,
नवजीवन की राह दिखती,
चलती जाती ठंडी धूप।


​नवजीवन का आशय यहाँ देहावसान के पश्चात् नया शरीर धारण करने से है।  

Tuesday, July 29, 2014

समझदारी

अर्थ निरर्थक हो जाते हैं।
यदि तुम इसको ना समझो तो।।

शब्द निरर्थक हो जाते हैं।
यदि तुम इसको ना जानो तो।।

धर्म निरर्थक हो जाता है।
यदि तुम इसको ना मानो तो।

समय निरर्थक हो जाता है।
यदि तुम इसको ना आंको तो।।

सीख निरर्थक हो जाती है।
यदि तुम इसको ना धारो तो।।

दौर ए जहाँ


किस दौर में बैठे हैं हम।
न तुमको पता है न हमको पता है।

समय का मुसाफिर कहाँ जा रहा है।
न तुमको पता है न हमको पता है।


छिड़ी है बहस किस तरफ जा रहे हैं।
न तुमको पता है न हमको पता है।


समय की ये धारा कहाँ जा रही है।
न तुमको पता है न हमको पता है।


कहाँ से चले थे कहाँ आ गए अब।
न तुमको पता है न हमको पता है।


वो स्वर्णिम सवेरा फिर से आएगा क्या।
न तुमको पता है न हमको पता है।

राष्ट्रीय अधिकार

"थूकिये भाइयों और बहनों को सादर समर्पित"

थूक थूक थूक थूक
थूक थूक थूक थूक

इधर थूक उधर थूक
यहाँ थूक वहां थूक
जहाँ दिल करे और  जहाँ मुंह भरे
वहीँ पर तू थूक

थूक थूक थूक थूक
थूक थूक थूक थूक

ये कोने
ये सडकें
ये सरकारी बिल्डिंग
ये सुंदर से गमले
तुम्हारे लिए हैं
जहाँ दिल करे और  जहाँ मुंह भरे
वहीँ पर तू थूक

थूक थूक थूक थूक
थूक थूक थूक थूक

आक्थू पिचक थू के स्वरों का ये गुंजन
होठों पे सजता ये रक्ताभ चन्दन
कभी भी कहीं भी
अचानक ये आक्थू
सड़कों दीवारों पर सजती ये आक्थू
चलते मुसाफिर को कर देती हतप्रभ

जहाँ दिल करे और  जहाँ मुंह भरे
वहीँ पर तू थूक

थूक थूक थूक थूक
थूक थूक थूक थूक

चलते चालाते लकड़बम्ब (सुर्ती )लेके
चूना मिलाके हथेली रगड़ते
कड़क हाथों से फिर उसको फटकते
समवेत स्वरों में फिर पिचक थू के नारे लगाते
जहाँ दिल करे और  जहाँ मुंह भरे
वहीँ पर तू थूक

थूक थूक थूक थूक
थूक थूक थूक थूक


Saturday, May 31, 2014

भगवान शिव को समर्पित

हे परम शिवम 
हे नाथरूप 
हे जगन्नाथ 
हे महाबली 
हे सत्यरूप 

हे परम शिवम 
हे रुद्ररूप 
हे महाकाल 
हे भद्ररूप 
हे अभयरूप 

हे परम शिवम 
हे प्रेमरूप 
हे शान्तरूप 
हे ज्ञानरूप 
हे शक्तिरूप 

हे परम शिवम 
हे करुणरूप 
हे क्षमारूप 
हे दयारूप 
हे मातृरूप 

हे बिंदु रूप 
शिव तुम ही हो।  

अच्छे दिन आने वाले हैं

अहंकार की थी पराकाष्ठा
उन्मत्त थे बोल 
शासन बना था कुशासन  
मेढ़ खाती थी खेत 
रखवाला बना था सेंधमार 
सीमाएं थी असुरक्षित 
शत्रु हो रहे थे प्रबल 
सर ऊंचे हो रहे थे बागिओं के। 
प्रजा थी परेशां 

एक आंधी सी आई 
छंटा तब कुहाषा 
काली बदली से निकला 
आशाओं का सूरज 
मन की उमंगों ने ली 
एक अंगड़ाई 
सुनहले दिनों की 
एक आभास आई। 

भगवान शिव को समर्पित

हे जगदीश्वर
हे अखिलेश्वर 
हे सर्वेश्वर 


हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

हे राजेश्वर 
हे देवेश्वर 
हे परमेश्वर

हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

हे ज्ञानेश्वर 
हे करुणेश्वर 
हे प्राणेश्वर 
हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

हे मक्केश्वर 
हे रामेश्वर 
हे सोमेश्वर 

हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

हे दया निधे 
हे कृपा निधे 
हे सुधा निधे 

हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

​हे अविरामी 
हे अभिरामी 
हे अविनाशी 

हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

हे निराकार
हे निर्विकार 
हे निरहंकार 

हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

आर्त ध्वनि को सुनने वाले 
प्राणसुधा बरसाने वाले 
श्वांस श्वांस में बसने वाले।  

हे ब्रह्मेश्वर 
हे ज्योति लिंग 
शिव तुम ही हो।

सत्यम शिवम् सुंदरम। 

अच्छे दिन आने वाले हैं

गहन तिमिर की घटाएं 
प्रतिकूल व्यवस्थाएं 
निगलने तो आतुर लोलुपताएं
कंटकीर्ण रास्ते 
चहुंओर घेरे विषधर भयंकर 
आस्तीनें में बैठे नाग जहरीले 

लहराया परचम फिर भी सुहाना 
आशाओं का दीपक हुआ फिर प्रज्ज्वलित 
सुनहरे दिनों का आकांक्षित हुआ मन 
उगने को है फिर से वैभव का सूरज 
सुखी मन सुखी जन है गर्वित ये भारत 

Thursday, April 17, 2014

यात्रा वृतांत

यात्रा वृतांत - हास्य कथा वृतांत

आज कल चुनावी राजनीति की गहमा गहमी चल रही है, धड़ा धड़ राजनीतिक विषयों पे आर्टिकल पे आर्टिकल छप रहे हैं , ले तेरे की, दे तेरे की , धत तेरे की का सा वातावरण बना हुआ है। तलवारें अपने प्रतिद्वंदियों पर खिंची हुई हैं, ये अलग बात है कि भांजते भांजते कभी कभी वही तलवार खुद को तो कभी अपने ही पाले वाले का नाड़ा काट दे रही है।  लेकिन बाज बहादुर फिर से नाड़े में गाँठ मार के मैदान डट जा रहे हैं और फिर से वही बतकही और जूतबाजी का दौर शुरू।  एक बात बोलने की देर है दूसरा लपक के उस बात को उठा ले रहा है और बत्ती बना के वापस ?????? ???? अरे नहीं भाई …… दूसरे के फिर तीसरे के कान में डाले दे रहा है और घुमा फिरा के उस बत्ती में और बट मार के वापस बोलने वाले के ही कान में वापस दे  दे रहा है,  बोलने वाले को पता ही नहीं चल रहा है मेरी बोली हुई बात ही है या कोई और।  मुंह बोलते बोलते भन्नाया हुआ है और कान सुनते सुनते झन्नाया हुआ है, दिमाग के १२ बजे हुए हैं,गर्मी इतनी है कि फूस कब आग पकड़ ले रहा है पता ही नहीं चल रहा है। नतीजा "कमल" फूल छाप "झाड़ू" कब "हाथ" के  निशान के साथ कभी गाल पर तो कभी गर्दन पर छप जा रहा है।  कहीं चल चल चल मेरे हाथी तो कहीं चांदी की साईकिल सोने की सीट का गान चल रहा है।  इन्ही सब के बीच बस वाला तेज आवाज में "मुँहवा पे ओढ़ के चदरिया लहरिया लू---ट, ए राजा" का मधुर संगीत बिखेर रहा है। समझ के बाहर का जबरदस्त माहौल है। 

खैर छोड़िये इन बातों को चलिए कुछ और सुनाता हूँ आपको ………………… यात्रा वृतांत 

कल दीदी और छोटी बहनों के साथ कहीं जाना था,  टैक्सी वाला कार लेके आ गया था एक घंटे का सफर था।  लेकिन घर से निकलने में ही आधा घंटा निकल गया, कभी ये ले लो, कभी ये रख लो, कभी कुछ मिल नहीं रहा है उसका हड़कम्प। कभी उसने ये मंगाया था वो टाइम पे मिल नहीं रहा है।  उसी में गरमा गर्मी , रूठना मनाना चल रहा था।  खैर जैसे कैसे सफर पे निकल ही पड़े।  गर्मी बहुत थी बाहर तो टैक्सी वाले को बोला की भाई एसी चला दे।  वो अलग से गरम होने लगा की उसके अलग से चार्जेज लगेंगे पहले नहीं बताया था आपने ,पहले ऑफिस में बात करो।  कुछ कह कुहा के उसने एसी चला दिया। "टाइम पे चलना नहीं होता है तो टाइम पे बुलाते क्यों हैं लोग"  के  मधुर कटाक्ष के साथ सेल्फ मारने की क्रिया आरम्भ हुई, खैर छोड़ो … चलो भाई चलो भाई के नारों के साथ यात्रा प्रारम्भ हुई। 

बचपन से देख रहा हूँ जब भी कहीं  जाना होता है और घर में रोड़ा ना मचे ये संभव ही नहीं है।  ये सिर्फ मेरे ही घर का हाल नहीं है , लगभग सभी घरों का यही हाल है , शायद की कोई खुशकिस्मत होंगे जो बिना हल्ला गुल्ला मचाए चुप चाप चले जाते होंगे।  इन्ही सब बातों में खोए मेरे जहन में कुछ पुरानी अपनी और कुछ दूसरों की बातें घूम गई, जो आप लोगों के साथ शेयर कर रहा हूँ :

​हमारे एक पारिवारिक भाई साहब अपने तीनों बच्चो के साथ कहीं जा रहे थे , बच्चे छोटे ही थे।  भैया भाभी आगे बैठ गए और बच्चों को पीछे की सीट पे डंप कर दिया। बच्चों के बैठने स्थान फिक्स नहीं किया था,  बस जी लड़ाई शुरू।  एक लड़का और दो लड़कियां जैसा की हर घर का किस्सा है।  अब शिकवा शिकायतों का दौर शुरु.  ऐ पापा दे-ए-ख असुवा मार.…ता ।  लड़ाई की जड़ खिड़की के पास बैठने को था , बच्ची को समझा बुझा कर बीच में बैठा दिया गया और असुवा को किनारे की सीट मिल गई।  नंग असुवा को कुछ ना कुछ शरारत तो करना ही था , गर्मियों के दिन थे , कार का एसी ऑन  था लेकिन कूलिंग नहीं हो रही थी।  ए … भाई एसिया बिगर गइल बा का।  करवा तनिको  ठंडात नइखे। कहले रहनी की जाए से पहिले करवा केहुके देखवा लीहा- भाभी ने कहा , बस यही महाभारत की शुरुआत थी।  पलट के भैया का जवाब आया - दिमागवा दिनवा भर गरम रही त करवा कहाँ से ठंडाई।  बस जी सब कुछ छोड़ के दोनों मियां बीबी एक दूसरे पे पिल पड़े पांच दस मिनट तोहार हमार, हई हऊ,  एकरा ओकरा, में ही निकल गए, आपसी झगड़े में किसी ने कारण ढूंढने की कोशिश नहीं की और ऊपर से दोनों मुंह अलग से फुला के बैठ गए।  खैर जैसे तैसे लड़ाई खत्म हुई तो बीच में बैठी हुई बच्ची ने बताया की असुवा ने खिड़की खोल रखी है।  एहिसे करवा ठंडात नइखे।  फिर क्या था भइया की मुख रुपी तोप असुवा की तरफ घूम गई।  ए सोसुर तोहार दिमागवा ख़राब बा का, खिड़िकिया काहे खोलले बाड़े।  एक बार तो मारने के लिए भी लपके लेकिन ये तो कहिये बाजार के बीच से जा रहे थे और रोड पर भीड़ ज्यादा थी, नजर हटी और दुर्घटना घटी वाला माहौल था और आसु बाबू बच गए।  थोड़ी देर बाद जगह पा  भइया फिर से लपकने की कोशिश कर थे की आसुवा को एक आध कंटाप लगा दें।  लेकिन भाभी उनकी मंसा भांप चुकी थीं सो उन्होंने वहीँ बैठे बैठे धमकी भरा अल्टीमेटम सुना दिया कि ओकरा के मरनी त ठीक ना होई।  अब्बे हम चलत कार से उतर जाइब।  बोलते बोलते उन्होंने अपने साइड का दरवाजा भी एक बार खड़का दिया।  भइया माहुर कूंच के रह गए और असुवा को परसादी देने से वंचित किये जाने का अपराधबोध लिए चुप चाप गाड़ी चलाते रहे।  लेकिन गंतव्य पर पहुँचने के पश्चात् सामान इधर उधर रखने के मध्य भइया ने अपनी दबी हुई भड़ास निकालने की मंसा से "ए ससुर ठीक से उठावा" कह कर कान तो उमेठ ही दिया था असुवा का।  वो भी पट्ठा गजब का तेज था कान घुमाते ही जोर से चीख बैठा, हां हां का भइल का भइल का नारा समवेत वातावरण में गूँज उठा। कूछ ना.....  कूछ ना.…कह कर भइया ने  बात बनाने की कोशिश की, तनी मूड़ी लड़ गइल ह केवाड़ी से कह कर बात को दबाने की कोशिश की भइया ने।  भाभी असुवा के चीख मारते ही समझ गई थी कि ये हरकत क्या है।  खैर एक आदर्श भारतीय नारी की तरह उन्होंने बात को आगे ना बढ़ाते हुए, आवा बाबू आवा बाबू कह कर बच्चे का सर सहलाते हुए बात को वहीँ ख़त्म कर दिया।  

शेष फिर कभी ……    (पहली बार की लिखावट है इसलिए आप लोगों से माफ़ी की पूरी गुन्जाइश है) 
​​

Thursday, April 10, 2014

चर्चा

कुछ समय पहले जब नमो ने अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की थी तभी ये रचना दिमाग में आई थी, चारों तरफ (ब्लॉग्स पे ) बड़ा गंभीर चिंतन का माहौल है तो मैंने सोचा इस माहौल को थोड़ा नरम किया जाए और फिर थोड़ा दिमाग पे जोर मार के ये चुहलबाजी लिखी मारी। लीजिये प्रस्तुत है:

चाय पे चर्चा
खाए पे चर्चा
आए पे चर्चा
जाए पे चर्चा
भगाए पे चर्चा
नहाए पे चर्चा 

चर्चे पे चर्चा
पर्चे पे चर्चा
कर्जे पे चर्चा
दर्जे पे चर्चा

पंगे पे चर्चा
दंगे पे चर्चा
नंगे पे चर्चा
गंगे पे चर्चा

धरने पे चर्चा
अड़ने पे चर्चा
बोलने पे चर्चा
खोलने पे चर्चा

पानी पे चर्चा
दानी पे चर्चा
नानी पे चर्चा

तेल पे चर्चा
खेल पे चर्चा
रेल पे चर्चा
जेल पे चर्चा

फोन पे चर्चा
जोन पे चर्चा
टोन पे चर्चा

​भूत पे चर्चा  
भविष्य पे चर्चा

सोनी पे चर्चा  
धोनी पे चर्चा 

बिजली पे चर्चा 
खुजली पे चर्चा

मनुष्यता जिसकी चर्चा होनी चाहिए उसे छोड़ ये देश बाकि सब पे चर्चा कर रहा है। 

Monday, March 24, 2014

बचते रहो

पुलिस की मार से….
दोधारी तलवार से….
रेलवे स्टेशन के पाकिट मार से....
बचते रहो.…

घोड़े की अगाडी से.…
गधे की पिछाड़ी से.…
नज़र की कटारी से…..
बचते रहो....

कोसी (नदी) के प्रकोप से....
संतो (ऋषियों) के कोप से....
बोफोर्स तोप से….
बचते रहो.…

नशेड़ी की गाड़ी से.…
कंटीली झाडी से….
तिब्बत की पहाड़ी से …
बचते रहो .…

अंजान गली के कुत्ते से .…
जुए से सट्टे से ….
बदमाशों के कट्टे से ….
बचते रहो .…

प्रश्नों की बौछार से ….
राशन की कतार से ….
दुश्मन के प्रहार से ….
बचते रहो .…

मिलावटी तेल से .…
शेयर के खेल से .…
भीड़ के रेलम पेल से .…
बचते रहो .…


चौराहे के भिखारियों से .…
राजनीती के खिलाड़ियों से .…
नकली पंडो से पुजारियों से ….
बचते रहो .…

छलियों के छल से .…
बलियों के बल से .…
टिड्डियों के दल से .…
बचते रहो .…

डॉक्टर की दवाई से .…
झीलों की गहराई से ….
साड़ों की लडाई से ….
बचते रहो .…

मंदी की मार से ….
बिजली के तार से …
ट्रैफिक पुलिस की राडार वाली कार से
बचते रहो .…


शिकारी के फंदों से .…
छल प्रपंच के धंधो से ….
कवियों के छंदों से ….
बचते रहो .…